आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजनीतिक दलों की चुप्पी कहीं तूफान से पहले वाली खामोशी तो नहीं

आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक फैसला सुनाया.अदालत ने कहा कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनताति की श्रेणी में सब कैटेगरी बनाने पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है.सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला 6:1 के बहुमत से सुनाया है. फैसला सुनाने वाले पीठ में शामिल जस्टिस बीआर गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में क्रीम लेयर लागू करने पर भी जोर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने देश में एक नए राजनीतिक बहस को जन्म दे दिया है. दक्षिण भारत के दलों न इस फैसले का स्वागत किया है. लेकिन कांग्रेस-बीजेपी समेत उत्तर भारत के किसी भी दल ने इस फैसला पर अभी मुंह नहीं खोला है. अभी वो चुप्पी साधे हुए हैं. उन्हें इस बात का इंतजार है कि दलित सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं. 

क्या हो सकता है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देश में एक नई राजनीतिक बयार बह सकती है.देश में ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली कई पार्टियां उठ खड़ी हुई थीं.यह पिछड़े वर्ग की जातियों की पार्टियां थीं. समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड,इंडियन नेशनल लोकदल और जनता दल (सेक्युलर) जैसी पार्टियां उसी के बाद पैदा हुई थीं. लेकिन बाद के वर्षों में पिछड़ी जातियों में से कुछ अति पिछड़ी जातियों को लगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले ये दल उनके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. इसी आधार पर कुछ जाति आधारित पार्टियों का उदय हुआ था. उत्तर प्रदेश में अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) जैसी पार्टियां जाति आधारित राजनीति करती हैं. 

भारत में दलितों की राजनीति

भारत में अनुसूचित जाति के लोग जिन्हें आमतौर पर दलित के नाम से पहचाना जाता है.दलितों ने सही राजनीतिक प्रतिनिधित्व और अवसर के लिए अपना राजनीतिक दल बनाने की कोशिशें आजादी के बाद के दशक में ही शुरू कर दी.महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का 1957 में गठन किया गया,इसी दिशा में उठाया गया कदम था.देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बहुजन समाज पार्टी का गठन भी इसी आधार पर हुआ था. ऐसे में अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में कोई कदम उठाती है तो राजनीतिक उथल-पुथल होने की संभावना है. इसी वजह से राजनीति दल अभी चुप्पी साधे हुए हैं.वो इंतजार कर रहे हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोग इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद महाराष्ट्र में राजनीति करने वाले वंचित बहुजन आघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने कहा कि यह फैसला समानता के मौलिक अधिकार के खिलाफ है. उन्होंने कहा कि पिछड़ापन का निर्णय किस आधार पर किया जाएगा. इसके साथ ही उन्होंने न्यायपालिका पर भी उंगली उठाई है. उन्होंने कहा है कि न्यायपालिक में ही आरक्षण नहीं है. उन्होंने पूछा है कि क्या अगड़ी जातियों में पिछड़ापन नहीं है? क्या सामान्य वर्ग में भी सब कैटेगरी बनाई जानी चाहिए. उन्होंने कहा है कि एससी-एसटी का आरक्षण गरीबी हटाने का फार्मूला नहीं बल्की सामाजिक न्याय का हथियार है. 

न्यायपालिका पर क्या आरोप लगा रहे हैं दलित

प्रकाश आंबेडकर जैसी राय उत्तर प्रदेश के नगीना से सांसद चंद्रशेखर ने भी जताई है. उन्होंने कहा कि जिन जजों ने ये फैसला दिया है,उनमें एससी-एसटी के कितने जज हैं.ये बहुत जरूरी है कि अगर आप वर्गीकरण करना ही चाह रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट से ही इसकी शुरुआत होनी चाहिए.वहां तो लंबे समय से कुछ ही परिवारों का कब्जा है.एससी-एसटी के लोगों को तो आप घुसने नहीं दे रहे हो, लेकिन क्या सामान्य जाति के लोगों में अवसर नहीं है.उनको भी आप मौका नहीं दे रहे हैं.अगर आपको वर्गीकरण करना ही है तो सर्वोच्च संस्था से ही क्यों ना किया जाए,नीचे से क्यों करना चाहते हैं.

वहीं आंध्र प्रदेश में सरकार चला रही तेलुगू देशम पार्टी ने इसका समर्थन किया है.आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि उनकी पार्टी ने 1996 में एससी उपवर्गीकरण करने के लिए जस्टिस रामचंद्र राजू आयोग का गठन कर इस दिशा में पहला कदम उठाया था.उन्होंने कहा,”सभी वर्गों के साथ न्याय होना चाहिए और सामाजिक न्याय की जीत होनी चाहिए.यह तेदेपा का दर्शन है.सबसे गरीब वर्गों तक पहुंचने के लिए उपवर्गीकरण उपयोगी होगा.”

क्यों चुप्पी साधे हुए हैं राजनीतिक दल

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दल बीजेपी और कांग्रेस ने अभी कोई आधिकारिक बयान नहीं जारी किया है. यहां तक की दलितों की राजनीति करन वाली बसपा ने भी चुप्पी साधी हुई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि फैसला आने से पहले इन दलों ने इस तरह की मांग नहीं थी. पिछले दशक के शुरूआती सालों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार चला रही थी. बीजेपी की यूपी सरकार ने 2001 में हुकुम सिंह की अध्यक्षता में समाजिक न्याय समिति का गठन किया था. इस समिति ने 2002 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी.इसमें एससी-एसटी के 21 फीसदी और पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण कोटे को विभाजित करने की सिफारिश की गई थी. 

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में कुल 66 जातियां हैं. हुकुम सिंह समिति ने प्रदेश के 10 लाख सरकारी पदों का विश्लेषण किया था. इस आधार पर समिति ने कहा था कि कुछ जातियां अपनी आबादी का 10 फीसदी भी आरक्षण नहीं ले पाई हैं. इसलिए 21 फीसदी आरक्षण को दलित (जाटव-धुसिया-चमार) और अति दलित (64 जातियों) के दो हिस्सों में 10 फीसदी और 11 फीसदी में बांट देना चाहिए.बीजेपी की सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर आजतक अमल नहीं किया है. 

बिहार में दलित बनाम महादलित

वहीं उत्तर प्रदेश की पड़ोसी बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों को दलित और महादलित के रूप में बांटने का काम किया है. लेकिन यह राजनीतिक स्टंट भर है. नीतीश कुमार दुसाधों को दलित और अनुसूचित जाति की बाकी जातियों को महादलित बताते हैं. उनकी सरकार ने महादलितों के लिए कुछ परियोजनाएं शुरू की थीं. लेकिन अनुसूचित जातियों में सब कैटेगरी बनाने का काम नहीं कर पाए थे. 

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