आशा पारेख ने बताया आसान नहीं था सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनना, बताया क्यों जरूरी है सेंसरशिप

NDTV ने आज साल के अपने सबसे बड़े कार्यक्रम- ‘NDTV इंडियन ऑफ द ईयर’ (NDTV Indian of The Year 2024) अवॉर्ड्स में उल्‍लेखनीय कार्य करने वाले भारतीयों को सम्मानित किया. इस कार्यक्रम में राजनीति से मनोरंजन और उद्योग से खेल जगत की देश की बड़ी हस्तियां शामिल हुईं, जिन्‍होंने हमारे समाज को प्रेरित किया है. इस इवेंट में बॉलीवुड की जानी-मानी एक्ट्रेस आशा पारेख भी शामिल हुईं. इस दौरान उन्होंने कई किस्से शेयर किए. आशा पारेख ने सेंसरशिप और ओटीटी पर भी अपनी राय रखी.

सेंसरशिप और ओटीटी पर क्या बोलीं आशा पारेख?

फिल्मों में सेंसरशिप को लेकर आशा पारेख ने अपनी राय रखी. उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि सेंसरशिप होनी चाहिए क्योंकि जिस तरह की भाषा इस्तमाल हो रही है, वो बहुत ही खराब है. मैं इसके खिलाफ हूं. चाहे ओटीटी हो या सिनेमा”. आपको बता दें कि आशा पारेख ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत साल 1959 की फिल्म ‘दिल दे के देखो’ से की थी. इस फिल्म में वे शम्मी कपूर के साथ नजर आई थीं. अभिनेत्री ने बताया कि शम्मी कपूर से उन्हें काफी कुछ सीखने को मिला है.

पुरुष प्रधान इंडस्ट्री पर क्या सोचती हैं एक्ट्रेस 

हमेशा से भारतीय सिनेमा में मेल हीरो को ज्यादा अहमियत दी जाती है. मेल डॉमिनेटिंग इंडस्ट्री पर बात करते हुए आशा पारेख ने कहा, “उस समय ही नहीं फिल्म इंडस्ट्री आज भी पुरुष प्रधान है. हमने खुद को इतना मजबूत बनाया कि वह हमारा फायदा नहीं उठा सकें. आपको बता दें कि आशा पारेख सेंसरबोर्ड की पहली महिला अध्यक्ष थीं. आशा पारेख ने बताया कि जब वे सेंसरबोर्ड की पहली महिला अध्यक्ष बनीं तो काफी लोगों ने उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की. उन्होंने कहा, “मैं पहली महिला थी, वो मुझे नीचे गिरा देना चाहते थे. मैंने किसी की परवाह नहीं की और अपना काम किया”.

आशा पारेख का करियर

आशा पारेख 60 और 70 के दशक की लीडिंग एक्ट्रेस थीं. जब भी इस दौर की टॉप एक्ट्रेस की बात होती है तो उसमे आशा पारेख का नाम जरूर आता है. आशा पारेख अपनी प्रोफेशनल लाइफ के साथ-साथ अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर भी सुर्ख़ियों में रहीं. आशा पारेख ने अपने करियर में करीब 95 से अधिक फिल्मों में काम किया. जब प्यार किसी से होता है’ (1961), ‘फिर वही दिल लाया हूं’ (1963), ‘मेरे सनम’ (1965), ‘तीसरी मंजिल’ (1966), ‘बहारों के सपने’ (1967), ‘शिकार’ (1968), ‘प्यार का मौसम’ (1969), ‘कटी पतंग’ (1970) और ‘कारवां’ (1971) उनकी कुछ यादगार फिल्में हैं.

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