बांग्लादेश की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री मानी जाने वाली शेख हसीना का दिनदहाड़े तख्तापलट हो गया. हसीना को ना सिर्फ अपनी कुर्सी गंवानी पडी, बल्कि प्रधानमंत्री आवास से तुरंत निकलना पड़ा और देश छोड़ना पड़ा. दुनिया में करीब 200 देश हैं. लेकिन उनको संकट में भारत याद आया. ऐसा इसलिए हुआ कि आधी सदी का बांग्लादेश का इतिहास यही बताता है कि हर संकट में सहयोग का संबल भारत ने ही दिया है.
जनाक्रोश की आग, हसीना की सरकार खाक
जनाक्रोश की इस आग में शेख हसीना की सरकार खाक हो गई. लेकिन खतरा कहीं इससे बड़ा था. शेख हसीना कुछ समय और बांग्लादेश में रह जातीं तो उनकी जान पर भी आफत आ सकती थी. गनीमत रही कि भारत ने सीधे शेख हसीना को आने का ऑफर दे दिया. संकट में ऐसी मदद उन्हें और कहां से मिलती.
जब भारत ने कई मौके पर की बांग्लादेश की मदद
बांग्लादेश की उम्र अभी पूरे 53 साल की भी नहीं हुई है. लेकिन उसके जन्म से लेकर अब तक ऐसे कई मौके आए, जब भारत नहीं होता तो बहुत भीषण घटना हो जाती. भारत के कारण ही 1971 में पाकिस्तान के चंगुल से पूर्वी पाकिस्तान छूटा और बांग्लादेश का निर्माण हुआ. वो भारत ही है, जिसने 1975 में बांग्लादेश बनाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान के पूरे परिवार के सामूहिक नरसंहार के बाद शेख हसीना और उनके परिवार को शरण देकर जान बचाई थी. 2009 में भी बांग्लादेश राइफल्स के विद्रोह के वक्त शेख हसीना की मदद करके बांग्लादेश को सैन्य अशांति में पड़ने से रोका था. अब भी वो भारत ही है, जिसने संकट में घिरीं शेख हसीना को पहली पनाह दी.
रविवार को बांग्लादेश बर्निंग देश बना हुआ था. सड़क पर छात्र थे और आंदोलन का आक्रोश था. प्रदर्शकारियों के निशाने पर शेख हसीना की सरकार थी. दोनों में ऐसी ठनी कि करीब 100 लोगों की जान चली गई. छात्रों का गुस्सा भी हिंसक होने लगा. सेना ने सरकार से मुंह मोड़ लिया. शेख हसीना के सामने सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया. तब उन्होंने भारत को याद किया. जैसा कि पहले भी भारत को लेकर उनके अनुभव रहे हैं.
संकट के समय भारत ने फिर दिया साथ
बांग्लादेश के सेना प्रमुख ने सोमवार की दोपहर प्रधानमंत्री आवास में जाकर शेख हसीना से मुलाकात की, तभी ये भनक लग गई कि अब हसीना का इस्तीफा होगा. लेकिन सवाल था कि इस्तीफा के बाद क्या होगा. सवाल उठने लगा कि जिस बांग्लादेश में राष्ट्रपति के आवास में हसीना के पिता और बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की पूरे परिवार के साथ हत्या हो गई थी, कहीं वैसा ही काला इतिहास शेख हसीना के साथ तो नहीं दोहराया जाएगा. लेकिन भारत ने तुरंत शेख हसीना के लिए अपना दरवाजा खोल दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश के साथ रिश्तों को लेकर वैसे भी सजग रहते हैं.
सोमवार को दोपहर के ढलने तक दिल्ली के पास हिंडन एयरबेस पर बांगलादेशी सेना का विमान शेख हसीना को लेकर पहुंचा. शेख हसीना आगे कहां जाएंगी, ये बाद में तय होगा लेकिन अभी तो हसीना भारत में ही हैं.
बांग्लादेश में सरकार के खिलाफ विद्रोह का इतिहास लंबा
बांग्लादेश में सरकार के खिलाफ विद्रोह का इतिहास लंबा रहा है. साल 2009 शेख हसीना की सरकार बने दूसरा महीना ही हुआ था और बांग्लादेश में विषम हालात बनने लगे थे. प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपनी ही सेना के एक हिस्से बांग्लादेश राइफल्स यानी बीडीआर की बगावत का सामना करना पड़ रहा था. इसकी पहली जानकारी भारत को मिली और वो भी शेख हसीना के जरिए कि संकट बड़ा है और अब भारत ही कुछ कर सकता है. उस दिन शाम होते होते भारत के पैराशूट रेजिमेंट की छठी बटालियन के मेजर कमलदीप सिंह संधू को एक इमरजेंसी कोड मिला. इस कोड में वही इशारा था, जब किसी आपातकालीन स्थिति में सेना को त्वरित ऐक्शन के लिए भेजा जाता है. वो कोड बांग्लादेश के लिए था.
बांग्लादेश राइफल्स के जवानों ने किया था खूनी विद्रोह
प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपनी ही सेना के एक हिस्से बांग्लादेश राइफल्स यानी बीडीआर की बगावत का सामना करना पड़ रहा था. बांग्लादेश राइफल्स के कुछ जवानों ने खूनी विद्रोह कर दिया था. उन्होंने ढाका में अपने डीजी और उनकी पत्नी की हत्या कर दी थी. रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ अविनाश पालिवाल ने अपनी पुस्तक ‘इंडियाज नीयर ईस्ट: ए न्यू हिस्ट्री’ में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है. उस घटना से शेख हसीना का अपनी से सेना पर भरोसा नहीं रहा. उन्होंने भारत से मदद मांगी.
भारत पूरी तरह मदद के लिए तैयार
2009 में हसीना की एक गुहार पर भारत तुरंत ऐक्शन में आ गया. भारत पूरी तरह मदद के लिए तैयार था. भारत ने यहां तक तैयारी कर ली थी कि जरूरी पड़ी तो बांग्लादेश में वो सैनिक हस्तक्षेप भी कर सकती थी. तब 1,000 से ज्यादा भारतीय पैराशूट सैनिकों को पश्चिम बंगाल के कालाकुंडा एयर फोर्स स्टेशन पर भेजा गया.
भारतीय सैनिकों को जोरहट और अगरतला से भी बुला लिया गया था. भारतीय सैनिकों को गोले बारूद भी बांटे जाने लगे थे. ताकि युद्ध जैसी स्थिति हो तो भी मोर्चा लिया जा सके. प्लानिंग ये थी कि भारतीय सैनिक बांग्लादेश में तीनों तरफ से घुसेंगे और ढाका के जिया इंटरनैशनल एयरपोर्ट और तेजगांव एयरपोर्ट पर कब्जा कर लेंगे. उसके बाद प्रधानमंत्री आवास गणभवन जाकर शेख हसीना की हिफाजत करते और उनको सुरक्षित स्थान पर ले जाते. इसके बाद, वे प्रधानमंत्री के आवास गणभवन पर कब्जा कर लेते और हसीना को सुरक्षित स्थान पर ले जाते.
इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात कितने गंभीर थे, जबकि भारत सरकार और सेना को भी अच्छे से पता था कि हो सकता है बांग्लादेशी सेना उल्टी प्रतिक्रिया करें. फिर भी भारत दिल खोलकर शेख हसीना की मदद के लिए तैयार था.
उस वक्त के विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और चीन के राजनयिकों से संपर्क किया और उनसे हसीना को समर्थन देने की अपील की. भारत ने बांग्लादेशी सेना को साफ कर दिया कि वो बांग्लादेशी राइफल्स के विद्रोहियों पर कार्रवाई ना करें, क्योकि इससे हालात और बिगडने का डर था. भारत का रुख साफ था कि अगर बांग्लादेशी सेना ने ऐसा किया तो भारत जवाबी कार्रवाई करती. यानी भारत ने कूटनीतिक और रणनीतिक दोनों तरीकों से शेख हसीना की सुरक्षा का इंतजाम किया.
अगर भारत नहीं होता तो 1971 में दुनिया के मानचित्र पर बांग्लादेश नाम का एक नया देश नहीं आया होता. तब बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था, जिसके साथ पश्चिमी पाकिस्तान में बैठे हुक्मरान दोयम दर्जे के नागरिकों से भी बदतर बर्ताव करते थे. जब इस अन्याय के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर्रहमान ने आवाज उठायी तो पाकिस्तानी सेना दमन पर उतर आई. भारत ने युद्ध करके बांग्लादेश का निर्माण किया, जिसके बाद शेख मुजीब बांग्लादेश के प्रधानमंत्री बने.
1947 में धर्म के नाम पर पाकिस्तान तो बन गया. लेकिन पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में धीरे धीरे कई मुद्दों पर टकराव बढ़ने लगा. पहला टकराव भाषा पर हुआ, क्योंकि 1948 में ही पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को बांग्ला बोलने वाले पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर भी थोप दिया. दूसरा, टकराव 1970 में हुआ, जब भोला चक्रवात से पूर्वी पाकिस्तान तबाह हो गया और जिसमें 3 से 5 लाख लोग मारे गए, जबकि राज काज संभाल रहे. पश्चिमी पाकिस्तान ने कोई मदद नहीं की.
वहीं, तीसरा टकराव1970 के ही चुनाव परिणामों से बढ़ा जब शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग ने जीत हासिल कर ली. लेकिन पश्चिम पाकिस्तान के नेता मुजीब को सत्ता सौंपने को कतई तैयार नहीं थे. इन्हीं कारणों के साए में 7 मार्च 1971 को शेख मुजीबुर रहमान ने ऐलान किया कि अगर जनादेश को नहीं माना गया तो पूर्वी पाकिस्तान अपना अलग बांग्ला मुल्क बनाएगा. तब पाकिस्तानी सेना ने विद्रोह को कुचलने के लिए दमन शुरु किया. बड़े पैमाने पर बलात्कार और हत्या की घटनाएं हुईं और पूर्वी पाकिस्तान से भागकर लाखों लोग भारत में शरण लेने लगे. तब मुजीब की मदद के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेना को युद्ध की तैयारी के आदेश दिए.
1971…जब पाकिस्तान ने किया था आत्मसमर्पण
1971 में भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान के अंदर गई और हार के बादल मंडराते देख 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. इसके बाद बांग्लादेश स्वतंत्र देश बना और शेख मुजीब उर रहमान उसके पहले प्रधानमंत्री बने. ये दूसरी बात है कि आज उनके ही देश में उनकी मूर्ति तोड़ी गई है.
“मेरे दादा ने इस देश को आजादी दिलाई…”
सजीव वाजेद ने कहा कि इन तस्वीरों को देखकर हमें निराशा हुई, गुस्सा आया..कि मेरे दादा ने इस देश को आजादी दिलाई. लेकिन उनके साथ मेरे पूरे परिवार की हत्या कर दी गई. अब वही शक्तियां एक बार फिर जिन्होंने बांग्लादेश की स्वतंत्रता का विरोध किया था, अब वह इस मौके का उपयोग स्वतंत्रता के लिए हमारी लड़ाई को बांटने और तोड़ने के अवसर के रूप में उपयोग कर रहे हैं.
ये अगस्त का महीना है जब ढाका से चलकर बांग्लादेश की निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत पहुंची. वो भी अगस्त का ही महीना था जब 49 साल पहले अपने पिता समेत पूरे परिवार की हत्या के बाद शेख हसीना भारत पहुंची थी. आज भारत उनकी पहली पनाह है. तब भी भारत ने ही उनको पनाह दी थी. तब बांग्लादेश की फौजी हुकूमत का खौफ ऐसा था कि वो कभी भी शेख हसीना को नुकसान पहुंचा सकते थे. इसीलिए भारत ने उनक पहचान को बेहद गुप्त रखा था.
1975..जब बांग्लादेश में हुआ था तख्ता पलट
बांग्लादेश की राजनीति बाप-बेटी की इस जोड़ी को अनदेखा करके गुजर नहीं सकती. वो 30 जुलाई 1975 का दिन था जब बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपने पिता और बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति से मुलाकात की थी. लेकिन उसके 16 दिन बाद ही 15 अगस्त 1975 की रात बांग्लादेश में सैनिक तख्ता पलट हुआ और राष्ट्रपति आवास में ही मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार की हत्या कर दी गई.
हसीना ने तब भारत में शरण लेने का किया फैसला
शेख हसीना की खुशकिस्मती थी कि वो उस वक्त बांग्लादेश में नहीं थीं. ना ही उनकी छोटी बहन रिहाना थीं. दोनों जर्मनी में थीं, जहां हसीना के पति न्यूक्लियर साइंटिस्ट थे. तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मुजीबुर्रहमान की दोनों बेटियों की चिंता हुई. उन्होंने जर्मनी में अपने राजदूत हुमायूं राशिद चौधरी को हसीना के पास भेजा. हसीना की इंदिरा गांधी से बात हुई. हसीना ने तब भारत में शरण लेने का फैसला किया.
भारत ने ऐसी रणनीति बनायी कि किसी को कानों कान खबर ना हो कि शेख हसीना भारत में हैं. एयर इंडिया के विशेष विमान से 25 अगस्त, 1975 के तड़के शेख हसीना अपने पति के साथ दिल्ली पहुंची. उन्हें 56 रिंग रोड स्थित एक सेफ हाउस में रखा गया. उनकी असली पहचान छिपाने के लिए मिस्टर और मिसेज मजूमदार की पहचान दी गई. कुछ दिनों के बाद शेख हसीना को पंडारा पार्क के सी ब्लॉक स्थित तीन कमरों के एक मकान में शिफ्ट कर दिया गया. वहां सुरक्षा का ऐसा इंतजाम किया गया कि परिंदा भी पर नहीं मार सके.
तब इंदिरा गांधी ने प्रणब मुखर्जी को शेख हसीना की हिफाजत का जिम्मा सौंपा था. शेख हसीना और उनके पति की सुरक्षा के लिए डिटेक्टिव तक तैनात किए गए. साथ ही शेख हसीना के वैज्ञानिक पति को नौकरी भी दी गई. वाकई तब भारत नहीं होता तो शायद बांग्लादेश की सैनिक तानाशाही शेख हसीना को भी नहीं छोडती. इत्तफाक देखिए कि यही अगस्त का महीना है और 49 साल बाद शेख हसीना फिर से भारत में हैं.