अब ‘श्री विजय पुरम’ किए गए पोर्ट ब्लेयर का नाम आखिर पोर्ट ब्लेयर (Port Blair) कैसे पड़ा? यह ब्लेयर कौन थे? कहानी थोड़ी रोमांचक है. 1780 के आसपास की बात है. बॉम्बे मरीन के लेफ्टिनेंट और सर्वेयर आर्चिबल्ड ब्लेयर (Archibald Blair) ने 1771 में नई-नई नौकरी जॉइन की थी.सर्वे का शौक था, सो हिंदुस्तान में पैर जमा रही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी उनकी काबिलियत को पहचाना. ब्लेयर भारत के अलग-अलग हिस्सों पर नजर गड़ाए ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वे मिशन का हिस्सा बन गए. हिंदुस्तान के तटीय इलाकों में जमीन के नए हिस्सों के सर्वे के लिए ब्लेयर निकल पड़े.
दिसंबर 1778 में कोलकाता से वे दो जहाजों एलिजाबेथ और वाइपर के साथ दक्षिण के लिए रवाना हुए. करीब चार महीने बाद अप्रैल 1779 में ब्लेयर की समंदर के बीच में जमीन के टापुओं को देख आंखें चमक उठीं. यह गजब की जगह थी. इस हिस्से का नाम तब ब्रिटिश सेना के कमांडर इन चीफ विलियम कॉनवेलिस ( William Cornwallis) के नाम पर पोर्ट कॉनवेलिस (Port Cornwallis) था. ब्लेयर को यह द्वीप ईस्ट इंडिया कंपनी के लिहाज से इतने काम का नजर आया कि उन्होंने तुरंत ही एक विस्तृत सर्वे रिपोर्ट कंपनी को भेज दी.
पोर्ट ब्लेयर नाम कैसे पड़ा?
ब्लेयर की इस रिपोर्ट को देख कंपनी की भी आंखें चमक उठीं. उसको यह द्वीप अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए एक मुफीद जगह लगी. और इसके बाद इस जगह का नाम बदलकर ब्लेयर के नाम पर पोर्ट ब्लेयर रख दिया गया.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां अपनी कॉलोनी बनाकर लोग बसाने शुरु किए. कंपनी को यह जगह इसलिए भी ज्यादा रास आ रही थी कि क्योंकि वह यहां से मलय की के समुद्री लुटेरों पर आसानी से नजर रख सकती थी. ये लुटेरे कंपनी के नाम में दम किए हुए थे.
लेकिन इस द्वीप की किस्मत में कुछ और लिखा था. 1796 में बीमारी फैलने से कई मौतों के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का दिल इस जगह से उचट गया. उसने यहां से अपना काम बंद कर दिया. कई सालों तक यह द्वीप ऐसे ही वीरान पड़ा रहा.
पोर्ट ब्लेयर की जेल में रखे गए स्वतंत्रता सेनानी
1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम ने हिंदुस्तान में अंग्रेजों की जड़ें हिलाकर रख दी थीं. अंग्रेजों की गुलामी से आजादी की यह पहली कोशिश नाकाम रही. अंग्रेजों ने आजादी के दीवानों से इसका इंतकाम लिया. और उन्हें यातनाएं देने के लिए पोर्ट ब्लेयर को चुना गया. कॉलोनी को थोड़ा ठीकठाक किया गया और स्वतंत्रता सेनानियों को यातनाएं देने के लिए उन्हें सालों यहां कोठरियों में रखा गया. कई को फांसी दी गई और कई बीमारी से मारे गए.
काला पानी की सजा वाली सेल्युलर जेल
1906 में यहां ‘V’ के आकार की सेल्युलर जेल बनाई गई, जो आज देश के लिए किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है. बर्मा से लाई गई लाल ईंटों से बनी यह तीन मंजिला जेल स्वतंत्रता सेनानियों पर अमानवीय अत्याचारों की गवाह बनी. इस जेल की दीवारों में वे किस्से जज्ब हैं. इतिहास की किताबों में ‘काला पानी’ की सजा के बारे में आपने जरूर सुना होगा. काला पानी की सजा वाली जेल यही सेल्युलर जेल है. वीर दमोदर सावरकर समेत कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इस जेल में रहे. सावरकर की किताब द स्टोरी ऑफ माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ में इस जेल का जिक्र है.
अंडमान-निकोबार के इतिहास का एक पन्ना 11वीं शताब्दी के चोल राजाओं पर भी खुलता है. इतिहासकारों की मानें तो चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अंडमान निकोबार में अपना नौसेना का बड़ा अड्डा बनाया था. श्रीविजय जो कि आज इंडोनेशिया के नाम से जाना जाता है, पर राजेंद्र प्रथम की नजर थी. उन्होंने श्रीविजय पर कई नौसैनिक हमले किए. यह वह दौर भी था जब बंदरगाह के जरिए चीन धीरे-धीरे फल-फूल रहा था. उसका व्यापार बढ़ रहा था.
श्रीविजय राजवंश
आज का इंडोनेशिया तब श्रीविजय कहलाता था.इंडोनेशिया का एक प्राचीन राजवंश थी श्रीविजय.राजवंश की स्थापाना चौथी शताब्दी के करीब हुई.चीनी यात्री इत्सिंग के मुताबिक यहां बौद्ध प्रभाव था.चोल राजा राजेंद्र (1012-44) ने हिंद महासागर कई नौसैनिक हमले किए