नवरात्रों की शुरुआत में आधुनिक नारी शक्ति की कहानी

भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए गई फ़िल्म लापता लेडीज़ में पूनम अपने पति के स्केच को देखने वाली जया से उसके पूछे कला के सवाल को लेकर कहती है, ई तो अपने आप आ जाती है. तब जया कहती है अपने आप आती तो सबको आती न, कला सरस्वती देती है और देवी माँ कोई फिजूल चीज़ देगी? रील लाइफ में पूनम चाहे अपने पति के बाहर रहने पर खाली वक्त में ही कला को वक्त देती हो पर रीयल लाइफ में सरस्वती की दी हुई कला की वजह से अनुपमा को उसके पति ने छोड़ दिया. आत्महत्या के कई प्रयासों के निशान अपने दाहिने हाथ पर दिखाती अनुपमा उनमें नही थी जो अपने घर परिवार की वजह से खुद से समझौता कर अपनी कला को भूल जाए, आज अनुपमा अपनी कला के दम पर ही अपने भाई के साथ रहते उसका घर चलाने में सहयोग कर रही हैं और पूरे क्षेत्र में अपनी कला के दम पर ही पहचानी जाती हैं. नवरात्रों की शुरुआत में हम अगर किसी आधुनिक नारी शक्ति की कहानी जानना चाहते हैं तो उसके लिए अनुपमा की कहानी सबसे उपयुक्त है.

दूसरी तीसरी कक्षा में गुड़िया के कपड़े खुद सिलती थी अनुपमा

टनकपुर के कई घरों में शादी हो या दीपावली का त्योहारी सीजन, बहुत से लोगों के घरों में हम ऐपण बनाते अनुपमा हरबोला को देख सकते हैं. उत्तराखंड में ऐपण कला का शुभ अवसरों और त्योहारों पर विशेष महत्व है, यह दिखने में रंगोली के समान लगती है. ऐपण को कई तरह के कलात्मक डिजाइनों में बनाया जाता है, घर के समारोहों और त्योहारों के दौरान महिलाएं आमतौर पर ऐपण को घर के फर्श और दीवारों पर बनाती हैं.

अनुपमा से मिलने हम जब उनकी दुकान पर पहुंचे तो वह मास्क लगाकर एक प्लेट में ऐपण बनाने में मशगूल थी. बातचीत शुरू करते अनुपमा के भाई बसन्त हरबोला बताते हैं कि द्वाराहाट से रोजगार की तलाश हमारे पिताजी टनकपुर चले आए थे और उनका टनकपुर में लकड़ी का काम था, साल 1985 में अनुपमा का जन्म टनकपुर ही हुआ. अनु को बचपन से ही कला का शौक था, दूसरी तीसरी कक्षा तक पहुंचते उनका कला का शौक दिखने लगा था, वह गुड़िया के कपड़े खुद सिला करती थी. 2006 में पिता की मृत्यु के बाद अनुपमा और उनके बड़े भाई- बहन ने अपनी दुकान पर कला से जुड़ा काम शुरु किया. अनुपमा के भाई कहते हैं कि मैंने अपनी बहन की शादी में पांच छह लाख रुपए खर्च किए थे पर कुछ ही समय बाद अनुपमा वहां से परेशान होकर घर वापस आ गई.

अनुपमा के भाई बसन्त हरबोला बताते हैं कि द्वाराहाट से रोजगार की तलाश हमारे पिताजी टनकपुर चले आए थे और उनका टनकपुर में लकड़ी का काम था, साल 1985 में अनुपमा का जन्म टनकपुर ही हुआ. अनु को बचपन से ही कला का शौक था, दूसरी तीसरी कक्षा तक पहुंचते उनका कला का शौक दिखने लगा था, वह गुड़िया के कपड़े खुद सिला करती थी.

घर का काम नही कला सिखा कर भेज दिया

अनुपमा ने अपने बारे बताते हुए कहा कि मेरी शादी साल 2013 में दिल्ली से हुई, ससुराल में मुझसे कहा जाता था कि तुझे घर का काम नही आता और तुझे तेरे मम्मी पापा ने घर का काम नही सिखाया, बस कला सिखा कर भेज दिया. मेरी जेठानी घर का काम करती थी और मैं उनके बच्चों के स्कूल का काम करवाने में मदद करती थी. मैं घर के काम भी करती थी और सिखाने पर अच्छा कर सकती थी लेकिन मुझे ससुराल में बार बार प्रताड़ित किया जाता था.

वह कहते थे कि कपड़े साफ नही हैं, फिर से साफ करो, यहां गन्दा रह गया फिर से पोछा लगाओ. उनकी प्रताड़ना बढ़ती गई और मैं डिप्रेशन में रहने लगी. वह लोग इन सब को देवी देवता से जोड़ने लगे और घर में तांत्रिक विद्या कराने लगे, इस दौरान मेरे पति को भी कमरे से बाहर भेज दिया जाता था. ससुराल वाले मुझसे कहते थे कि तू ये बोल कि मेरे माता पिता ने मेरी गलत शादी कराई है, तब हम तुझे छोड़ेंगे. शादी के पहले दो साल तो पति ने मेरा साथ दिया पर बाद में वह भी अपने घर वालों का साथ देने लगे.

आत्महत्या के कई प्रयासों के बाद उठ खड़ी हुई अनुपमा

आगे बात करते अनुपमा कहती हैं साल 2016 में मेरी मम्मी अंतिम अवस्था में थी तब मैं यहाँ वापस आई और उसके बाद मैं ज्यादा डिप्रेशन में आ गई. मैंने हाथ की नसें काटकर, कई बार आत्महत्या के प्रयास किए. एक साल तक भाई ने मेरा ईलाज बरेली से कराया, फिर मैंने भाई से कहा कि इन दवाओं से कुछ नही होगा और अब मुझे अपनी कला फिर से शुरू करनी है. आज स्थिति ये है कि पहले मैं जीने से डरती थी अब मरने से, मैं सोचती हूं कि मैं चले गई तो मेरी कला का क्या होगा.

अनुपमा से ऐपण बनवाने में प्रवासी भारतीय भी शामिल, कला के काम में नाम ज्यादा और पैसा कम

अनुपमा कहती हैं कि बर्तनों में ऐपण बनवाने के लिए लोकल के लोग मुझसे संपर्क करते हैं, इनमें प्रवासी भारतीय भी शामिल हैं. शादियों के सीजन में हम घर के दरवाजों में ऐपण बनाते हैं. अब समूह, एनजीओ हम लोगों से सामान लेकर जाते हैं और बेचते हैं. सोशल मीडिया से भी हमें काफी मदद मिलती है. पेंट का काम मुश्किल है, इससे मुझे एलर्जी भी होती है. घर में भाभी,भाई और मैं मिल कर पेंट का काम करते हैं. इस काम से हमारे घर का खर्च चल जाता है, हमें किसी चीज़ की कमी नही होती. अभी करवाचौथ, दीपावली के समय हमारा काम सबसे अच्छा चलता है. शिकायत के लहजे में वह कहती हैं कि कला के काम में नाम तो है पर जितना पैसा होना चाहिए था उतना नही है.

अनुपमा कहती हैं कि बर्तनों में ऐपण बनवाने के लिए लोकल के लोग मुझसे संपर्क करते हैं, इनमें प्रवासी भारतीय भी शामिल हैं. शादियों के सीजन में हम घर के दरवाजों में ऐपण बनाते हैं. अब समूह, एनजीओ हम लोगों से सामान लेकर जाते हैं और बेचते हैं. सोशल मीडिया से भी हमें काफी मदद मिलती है.

पुस्तक मेलों से मिली खास पहचान

अनुपमा कहती हैं कि उत्तराखंड में होने वाले पुस्तक मेलों से हमें खास पहचान मिली है, पुस्तक मेलों के आयोजक हेम पंत हमें इनमें अपनी कला बेचने के लिए बुलाते रहते हैं. प्रशासनिक अधिकारी हिमांशु कफल्टिया ने भी पहले पुस्तक मेले की शुरुआत से ही हमारा साथ दिया है और कम्युनिटी लाइब्रेरी में भी हमारे बने ऐपण को जगह दी है. राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हमारी कला को देखकर तारीफ की थी.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top