Explainer: आसमान से चुपके से तबाही लेकर आने वाले ड्रोन बदल रहे जंग के मैदान की पूरी तस्वीर

तेजी से तरक्की करता विज्ञान जिस तेजी से नई टेक्नालॉजी का विकास कर रहा है वह हैरान करने वाला है. यह टेक्नालॉजी जहां इंसान की सहूलियत के नए-नए रास्ते तलाश रही है वहीं तबाही का नया से नया सामान भी ईजाद कर रही है. आफत का ऐसा ही एक नया सामान बनता जा रहा है ड्रोन जिसे इन दिनों बच्चे भी खेल-खेल में इस्तेमाल कर रहे हैं. जिस ड्रोन का इस्तेमाल अब सामान और अन्य जरूरी चीजें लाने, पहुंचाने के लिए हो रहा है वह बीते कुछ सालों में हजारों लोगों की मौत का सबब भी बन चुका है. युद्ध के मैदान से लेकर आतंकियों की साजिशों तक ये ड्रोन बेहिसाब इस्तेमाल हो रहे हैं जो काफी डराने वाला है. 

हाल की सबसे बड़ी खबर को ही लीजिए, सीरिया में तख्ता पलट… सीरिया में हथियारबंद विद्रोहियों ने जिस तेजी के साथ 12 दिन के अंदर 13 साल के आतंक राज का खात्मा कर दिया उससे युद्ध के तमाम रणनीतिकार भी हैरान रह गए. सीरिया की बशर अल असद सरकार के खिलाफ विद्रोही गुट बिजली की जिस तेजी से आगे बढ़े उसके पीछे एक खास हथियार ने उनकी बड़ी मदद की… ये था स्थानीय तौर पर विकसित एक ड्रोन, जिसका नाम है शाहीन. विद्रोही गुटों का नेतृत्व करने वाले संगठन हयात तहरीर अल शाम यानी HTS की कामयाबी में ये हथियार खास साबित हुआ.  HTS के एक कमांडर ने सोशल मीडिया पर बताया कि उनके शाहीन ड्रोन ने हामा प्रांत में सीरियन रिपब्लिकन गार्ड्स की एक हाई लेवल बैठक को निशाना बनाया. हामा के फौजी एयरबेस से सीरिया के एक हेलीकॉप्टर को भी शाहीन ड्रोन से मार गिराया गया.  HTS के इस कमांडर ने बताया कि सीरिया की मदद करने वाले ईरान और रूस के कई ड्रोन्स पर उन्होंने कब्ज़ा किया था और रिवर्स इंजीनियरिंग के ज़रिए ये नए घातक ड्रोंस बना दिए. नए ड्रोन बनाने के लिए उपकरण उन्होंने दुनिया भर के ब्लैक मार्केट्स से हासिल किए.

रिवर्स इंजीनियरिंग से बना डाला शाहीन ड्रोन

रिवर्स इंजीनियरिंग से शाहीन ड्रोन बनाने की इस विद्रोही कमांडर की बात में कितनी सच्चाई है, इसकी जांच हो सकती है, लेकिन असल बात ये है कि लड़ाई के मैदान में ड्रोंस के इस्तेमाल ने युद्ध के पूरे परिदृश्य को ही बदल दिया है. पश्चिम एशिया को ही लें तो वहां ड्रोन्स का इस्तेमाल न सिर्फ़ देशों की सेनाएं कर रही हैं बल्कि विद्रोही लड़ाके भी कर रहे हैं.

7 अक्टूबर 2023 को इज़रायल पर हमास के अब तक के सबसे घातक हमले को ही लीजिए जिसमें 1100 से ज़्यादा लोग मारे गए और क़रीब ढाई सौ लोगों का अपहरण कर लिया गया. इस हमले से ठीक पहले इज़रायल की निगरानी चौकियों और गाजा सीमा पर उसकी रक्षा पंक्ति को निशाना बनाने के लिए हमास ने हथियारों से लैस आत्मघाती ड्रोन्स का इस्तेमाल किया. इससे इजरायल को एकाएक ये समझ ही नहीं आया कि उस पर होने वाले हमले का पैमाना कितना बड़ा है. और इस आड़ में जो भयानक हमला हमास ने किया उसने इज़रायल को हिलाकर रख दिया. 

ड्रोन के आगे लाचार हुआ सिनवार

इसके जवाब में इजरायल ने जो भयानक जवाबी कार्रवाई गाजा में हमास के तमाम ठिकानों पर की, उसमें भी ड्रोन्स का जमकर इस्तेमाल हुआ. ड्रोन्स के इस्तेमाल से गाज़ा की इमारतों में हमास के लड़ाकों को ढूंढा जाता रहा. हमास के चीफ़ याहया सिनवार से जुड़ी तस्वीरें इस बात की तस्दीक करती हैं. वो जब गाज़ा के रफ़ाह में बमबारी से बर्बाद हुए खंडहरों के बीच बचने के लिए भाग रहा था तो इज़रायली ड्रोन लगातार उसका पीछा कर रहे थे. अंत में याहया सिनवार बमबारी से तहस नहस हुए एक कमरे में छुपकर एक सोफे पर बैठा तो उसका पीछा करता ड्रोन भी वहां उड़ा चला आया. अपने आख़िरी समय में याहया सिनवार उस ड्रोन को एक टूटी लकड़ी से निशाना बनाता दिखा लेकिन नाकाम रहा. इसके बाद इज़रायल ने सिनवार को मार गिराया और गाज़ा के ख़िलाफ़ लड़ाई में ये मील का पत्थर साबित हुआ. 

उधर इजरायल के उत्तरी छोर पर लेबनान में छुपे हिज़्बुल्लाह लड़ाकों ने भी ईरान की टेक्नालॉजी से तैयार ड्रोन्स का इस्तेमाल लगातार इजरायल के सैनिक ठिकानों को निशाना बनाने में किया है. इज़रायल की सेना अपने हमलों में ड्रोन्स के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल कर रही है. 

देशों के बीच युद्ध के इतिहास में ड्रोन्स का इस्तेमाल पहली बार किस युद्ध में हुआ इसके लिए कई दावेदार हो सकते हैं. नागार्नो काराबाख के कब्ज़े के लिए अज़रबैजान और आर्मीनिया का युद्ध भी इनमें से एक है. 

तुर्किए के खिलाफ अज़रबैजान का हथियार

पूर्वी यूरोप और पश्चिम एशिया की सीमा पर बसे अज़रबैजान जैसे एक छोटे देश ने भी कुछ साल पहले आर्मीनिया की सेना के ख़िलाफ़ तुर्किए में बने ड्रोन्स का बड़ी ही कामयाबी के साथ इस्तेमाल किया, भारी तबाही मचाई और विवादित नागार्नो काराबाख़ पर अपना कब्ज़ा पुख़्ता कर लिया. अज़रबैजान के ड्रोन्स ने आर्मीनिया के तोपखानों, टैंकों और खंदकों में छुपे जवानों को इन ड्रोन्स से निशाना बनाया. उनके पास बचने के लिए कोई जगह बची ही नहीं. इनके इस्तेमाल ने अज़रबैजान को वो ताक़त दी कि उसने सालों से चले आ रहे एक विवादित इलाके का काफ़ी हद तक समाधान कर दिया.

इसी दौरान शुरू हुए रूस-यूक्रेन युद्ध में भी तबाही मचाने के लिए ड्रोन्स का जमकर इस्तेमाल हो रहा है. ये युद्ध एक तरह से ड्रोन्स के इस्तेमाल की लाइव लैबोरेटरी भी बने हुए हैं जिन पर रक्षा उपकरण बनाने वालों की क़रीबी निगाह है. ये कितने घातक साबित होते हैं, कहां कमज़ोर पड़ रहे हैं, सब कुछ दर्ज हो रहा है. 

रूस द्वारा हमले के शुरुआती हफ़्तों में ही यूक्रेन की सेना ने बड़ी ही कामयाबी के साथ तुर्की में बने Bayraktar यानी TB2 ड्रोन्स का इस्तेमाल किया. इनके ज़रिए कीव पर हमला करने वाले बख़्तरबंद वाहनों को निशाना बनाया गया. यहां तक कि इस कामयाबी पर यूक्रेन में एक गीत बना जो यूट्यूब में बड़ा चर्चित हो गया. 

यूक्रेन के पास ड्रोन की ताकत

यूक्रेन के ड्रोन्स ने रूस की सीमा से लगे इलाकों ही नहीं बल्कि सैकड़ों किलोमीटर दूर रूस की राजधानी मॉस्को में भी कई अहम ठिकानों को निशाना बनाया और कई बार काफी नुकसान भी पहुंचाया है. हालांकि रूस का दावा रहा है कि अधिकतर हमलावर ड्रोन्स को वह बीच रास्ते में ही मार गिराने में कामयाब रहा है.  

यूक्रेन ने UJ-22 और UJ-26 फिक्स्ड विंग ड्रोन्स का विकास किया है जो 800 किलोमीटर दूर तक मार कर सकते हैं. यूक्रेन क़रीब दस लाख हमलावर ड्रोन अपनी सैनिक टुकड़ियों को सौंप चुका है. यूक्रेन की सेना की हर इकाई में एक ड्रोन वॉरफेयर यूनिट है और इसके लिए वो नए लोगों को लगातार प्रशिक्षण दे रहा है. 

उधर जवाब में रूस भी ड्रोन का इस्तेमाल यूक्रेन के तमाम इलाकों पर निशाना बनाने के लिए कर रहा है. रूस ख़ास तौर पर ईरान में बने ड्रोन्स, जिन्हें डेल्टा विंग शाहिद 136 कहा जाता है, पर निर्भर है. ये फुर्तीले ड्रोन ज़मीन के काफ़ी क़रीब उड़ते हैं लिहाज़ा राडार के लिए उनका पता लगाना काफ़ी मुश्किल होता है. ईरान की इस टेक्नालॉजी से रूस अपने यहां भी अब ड्रोन्स बना रहा है.

ड्रोन का इस्तेमाल करने में कई फायदे

ड्रोन्स का यह इस्तेमाल युद्ध के मैदान में तबाही मचाने की एक नई शुरूआत है. समय के साथ ड्रोन टेक्नालॉजी बेहतर बन रही है. ड्रोन्स के दरअसल कई फ़ायदे हैं. इन्हें दूर से ही ऑपरेट किया जा सकता है और ऑपरेटर को युद्ध भूमि के अंदर जाने की ज़रूरत नहीं होती. इनके ज़रिए विस्फोटक गिराए जा सकते हैं. काफी कम ऊंचाई पर उड़ने के कारण राडार की निगरानी से बचा जा सकता है. दुश्मन के इलाके की टोह ली जा सकती है. छोटे होने के कारण ये काफ़ी फुर्तीले भी होते हैं. एक छोटी सी टीम कई ड्रोन्स का एक साथ दुश्मन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर सकती है.

ड्रोन्स के विकास में अमेरिका बहुत आगे है, जिसने कुछ साल पहले कामीकाज़े ड्रोन बनाया था. कम लागत और हल्के वज़न वाला ये किलर ड्रोन ज़मीनी लड़ाई को उतना ही बदल देगा जितना बीसवीं सदी की शुरुआत में युद्ध के मैदान में गरजी पहली मशीन गनों ने बदल दिया था. ये ड्रोन इतनी तेज़ी से उड़ते हैं कि आंख से उन्हें देखना मुश्किल होता है. जिस ठिकाने को निशाना बनाया जाना है उसके लिए इसे प्रोग्राम किया जाता है और फिर ये लक्ष्य के पास पहुंच कर सही समय पर उससे टकरा कर उसे तबाह कर देता है. 

कामीकाज़े का अर्थ है डिवाइन विंड यानी दैवीय आंधी… 13वीं सदी में जापान पर हमले के लिए आने वाले मंगोल आक्रमणकारियों के बेड़ों को डुबाने वाले तूफ़ान को कामीकाज़े कहा गयाा था. लेकिन ये शब्द दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दुनिया भर में चर्चा में आया. तब जापान के विस्फोटकों से लदे कई हल्के लड़ाकू विमानों ने सीधे दुश्मन के समुद्री जहाज़ों पर टक्कर मारकर उन्हें तबाह किया. वो ख़ुद तो बर्बाद हुए ही लेकन दुश्मन को भी भारी नुक़सान पहुंचाया.  

भारत का तेज गति वाला ड्रोन- खर्गा

नए दौर के युद्धों में ड्रोन्स की अहमियत को पहचानते हुए भारत भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. हाल ही में भारतीय सेना ने खर्गा नाम से एक कामीकाजे ड्रोन विकसित किया है जिसका इस्तेमाल खुफिया जानकारी और टोह लेने के लिए भी किया जा सकता है. ये हाई स्पीड ड्रोन बहुत ही हल्का है और 40 मीटर प्रति सेकंड की तेज़ रफ़्तार से उड़ सकता है. यही नहीं, यह अपने साथ 700 ग्राम विस्फोटक ले जा सकता है. इसमें जीपीएस, एक नेविगेशन सिस्टम और हाई डेफिनीशन कैमरा है. दुश्मन के इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम जैमिंग से बचने की भी इसमें व्यवस्था है. सिर्फ़ 30 हज़ार रुपये की लागत से बना ये ड्रोन रडार की पकड़ में नहीं आता और इसकी रेंज डेढ़ किलोमीटर है. और अब इन्हें 1000 किलोमीटर दूर तक मार करने के लिए तैयार किया जा रहा है.  

वैसे दुश्मन को छकाने के लिए अब एक नहीं बल्कि एक साथ सैकड़ों ड्रोन्स के झुंड भी तैयार हो रहे हैं जिनसे दुश्मन को समझ ही न आए कि वो किस किसको गिराए. ड्रोन्स की ये चुनौती अब दुनिया के तमाम देशों की रक्षा पंक्ति को मज़बूत कर रही हैं तो प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए चुनौती बन गई हैं. ड्रोन्स जितनी तेज़ी से आधुनिक हुए हैं उतनी ही तेज़ी से उनसे बचाव की तकनीक भी तैयार हो रही है. 

हथियारों की टेक्नालॉजी जब भी कोई नई छलांग लगाती है तो मुक़ाबला होता है हमले को अचूक बनाने और बचाव को बेहतर करने के बीच… ड्रोन्स की दुनिया में भी यही हो रहा है. एक तरफ़ घातक ड्रोन्स बन रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उनके मुक़ाबले की टेक्नालॉजी लगातार बेहतर हो रही है.. जैसे ट्रक माउंटेड गन्स और इन्फैंट्री द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले drone cannons विकसित किए गए हैं. 

लेकिन ड्रोन्स से निपटने के लिए इससे भी प्रभावी है electronic warfare जिसमें ड्रोन्स के सिग्नल्स को जैम कर उन्हें बेकार किया जाता है. electronic warfare के ज़रिए ऑपरेटर टीम के हाथ से एक तरह से ड्रोन का नियंत्रण छीन लिया जाता है ताकि ड्रोन निशाने से पहले ही गिर कर बेकार हो जाएं. रूस की सेना यूक्रेन के ख़िलाफ़ इस electronic warfare का कामयाबी से इस्तेमाल कर रही है. 

घातक ड्रोन से बचाव के प्रतिरक्षा प्रणाली का विकास 

रूस की इस बचाव तकनीक से निपटने के लिए यूक्रेन की ड्रोन टीम्स सिग्नल्स की फ्रीक्वेंसी बदलकर लगातार उनका नियंत्रण अपने हाथ में रखने की कोशिश करती है. एक तरह से ये चूहे बिल्ली का खेल युद्ध के मैदान में भी चल रहा है. ड्रोन्स दुश्मन की पकड़ में न आएं इसके लिए उनमें अब AI-embedded miniature targeting systems लग रहे हैं ताकि वो ऑपरेटर टीम के सिग्नल्स के भरोसे न रहें. ख़ुद ही ये तय करें कि उन्हें किस तरह दुश्मन को अधिक से अधिक नुक़सान पहुंचाने के लिए हमले करने हैं. 

ड्रोन्स से निपटने के लिए अब लेज़र हथियार भी तैयार किए जा रहे हैं जिन पर इज़रायल समेत दुनिया के कई देश काम कर रहे हैं. हाल ही में बीजिंग में एक एयर शो के दौरान चीन ने एक मोबाइल एयर डिफेंस वेपन्स सिस्टम दुनिया को दिखाया. ड्रोन्स से बचाव के लिए बना ये हथियार छोटे से छोटे और हल्के से हल्के ड्रोन को हाई पावर माइक्रोवेव्स के इस्तेमाल से गिरा सकता है… FK 400 कहा जाने वाला यह डिफेंस सिस्टम एक सेकंड के अंदर दो मील की दूरी पर मौजूद ड्रोन को माइक्रोवेव ब्लास्ट से मार गिरा सकता है.  

भारत ने भी दुश्मनों के ड्रोन्स की चुनौती से निपटने के लिए एक स्वदेशी सिस्टम विकसित किया है. इस सिस्टम का नाम है counter-unmanned aerial system (C-UAS) जिसे द्रोणम नाम दिया गया है. द्रोणम की मदद से बीएसएफ़ सीमा पार पाकिस्तान से आने वाले 55 फीसदी ड्रोन्स को मार गिराने में कामयाब रही है. भारत में गुरुत्व सिस्टम्स ने इस आधुनिक द्रोणम सिस्टम को तैयार किया है. ये कई दिशाओं से आने वाले ड्रोन्स से बचाव करने में सक्षम है. 

आतंकियों के हाथ में ड्रोन आने से बढ़ा खतरा

ड्रोन्स के अटैक और काउंटर अटैक की तेज़ी से बदलती टेक्नालॉजी के बीच सबसे बड़ी चिंता ये है कि ड्रोन जैसा ये घातक और अपेक्षाकृत सस्ता हथियार अब आतंकियों और कई देशों के विद्रोही गुटों के भी हाथ लग चुका है. कम लागत और अधिक घातक होने के कारण आतंकी भी अब अधिक से अधिक इनका इस्तेमाल कर रहे हैं. 

साल 2019 में ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों ने सऊदी अरब की बड़ी तेल कंपनी ARAMCO की तेल रिफ़ाइनरियों पर हमले के लिए ड्रोन्स का इस्तेमाल किया था. ये हमले इतने सटीक थे कि इनके बाद सऊदी अरब की तेल उत्पादन क्षमता अचानक से पचास फीसदी गिर गई. दुनिया में कच्चे तेल के दाम अगले ही दिन बढ़ गए. अमेरिका द्वारा दिए गए अत्याधुनिक एयर डिफेंस सिस्टम को छकाते हुए ये ड्रोन्स बहुत ही चुपके से और बड़ी ही तेज़ी से आए. वे ज़मीन के इतने क़रीब उड़े कि राडार उनका पता ही नहीं लगा पाए और फिर उन्होंने तेल ठिकानों पर पल भर में तबाही मचा दी. 

इराक में अमेरिका के ठिकानों पर ईरान समर्थक विद्रोहियों ने 2021 में ड्रोन्स से ऐसे कई हमले किए. चिंता ये है कि नागरिक ठिकानों में अगर ऐसे घातक ड्रोन्स का इस्तेमाल किसी ने किया तो क्या होगा. ज़मीन पर तो निगरानी की जा सकती है. विस्फोटकों से लदी गाड़ियों को किसी तरह रोका जा सकता है, लेकिन अगर ये तबाही आसमान से चोरी चुपके आई तो क्या होगा… कुल मिलाकर जिस तरह के युद्धों को साइंस फिक्शन का हिस्सा माना जाता था वो अब असलियत में सामने आ रहे हैं. ड्रोन्स का इस्तेमाल युद्धभूमि की पूरी तस्वीर ही बदलने जा रहा है.

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